भगवान महावीर और चंडकौशिक सर्प की कहानी

क्रोध को क्षमा से शांत करो 

पुराने जमाने की बात है। एक जंगल में 'कनकखल' नाम का आश्रम था। वहां अनेक तपस्वी रहते थे। उस आश्रम का कुलपति बहुत क्रोधी था। उसका नाम था चंडकौशिक। एक बार कुछ राजकुमार उसके आश्रम में आकर फल-फूल तोड़ने लगे। वह उनके पीछे दौड़ा । पैर फिसल गया। वह एक गड्ढे में गिरा और तत्काल मर गया। मर कर वह उसी जंगल में सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। यह क्रोध का ही परिणाम था। 



एक बार भगवान् महावीर घूमते-घूमते उसी जंगल में आ गए । वे वनखंड में वहां पहुंचकर ध्यान में स्थिर हो गए । चंडकौशिक सर्प वहां आया । उसने अपने बिल के पास एक मनुष्य को देखा। उसका क्रोध भभक उठा । उसकी आंखों से विष की ज्वालाएं उछलने लगी। विषधर ने तीन बार फुफकारते हुए महावीर को डंक मारने का प्रयत्न किया, किन्तु वे ध्यान से विचलित नहीं हुए। अंत में उसने महावीर के पैर में डंक मारा । रक्त की धारा बह चली। विषधर ने उसे चूसा । लहू दूध जैसा लगा। विषधर ने सोचा, यह क्या ! आज तक भी मेरा प्रहार खाली नहीं गया, लेकिन यह व्यक्ति ज्यों का त्यों खड़ा है। आखिर यह है कौन ? इस प्रकार चिन्तन करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान (पूर्वजन्म का ज्ञान) उत्पन्न हो गया । ज्ञान के द्वारा उसने भगवान् महावीर को जाना । उसका अहं चूर-चूर हो गया ।

महावीर ने आंखे खोलीं। उनमें से प्रेम बरसने लगा। विषधर शांत हो गया। उसको पूर्वजन्म की स्मृति हो आई।

महावीर ने कहा-विषधर ! क्रोध का फल तुमने देख लिया । क्रोध के कारण तुमको कितने कष्ट झेलने पड़े ? अब जागृत हो जाओ । सब जीवों के प्रति समभाव रखो। क्रोध को प्रेम में बदल डालो।

अब चंड कौशिक ज्ञानी बन गया। महावीर की अमृतमयी वाणी का उस पर प्रभाव हुआ और वह सदा के लिए शांत बन गया। तात्पर्य क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता। क्रोध करने वाला बच्चा अपने परिवार में भी आदर नहीं पा सकता, इसलिए बालकों को क्रोध के द्वारा नहीं, क्षमा के द्वारा क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।

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